मेहराब मेहराब दूरियाँ / श्रीनिवास श्रीकांत
बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब
धूप में चौंकता है आदमी
घूमता है आईना
जल है मछली में नुमायां
और मछली की आँखों में सूरज का डर
बाल्कनी में नहीं कोई आहट
खुली हैं खिड़कियाँ
खुले हैं दरवाज़े
प्रतीक्षा है
अनहोने इतिहास की
पर इतिहास नहीं गुज़रता
आक्षितिज फैली सपाट बाल्कनियों से
वह गुज़रता है भयानक पुलों
और खूनी नदियों के बीच से
दूर तक फैली है रेत और रेत और रेत
बढ़ गया बस्तियों से फासला समन्दर का
डूबते सूरज और गुल होती रौशनी के साथ
बच्चे ढूँढते हैं माँओं की छातियाँ
कहाँ गया नीलघाटी का आबदार सम्मबोधन
हिलते हुए पारे का सेन्दूर् का फैलाब
पर्वत से अबकी बार
नहीं उतरेंगे नबी
न बरसेगा आसमान
न भटकेंगी आँखे समन्दर पार
यायावर पक्षियों की खोज में
धूप नहीं रेंगेंगे बाल्कनियों बाल्कनियों
रस्सियों पर झूलेंगे साँप
ये कॉरीडोर,ये बॉल्कनियाँ, ये आरामघर
एक सन्नाटा है सिलसिलेवार
तेजहीन आँखों का ख़ालीपन
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बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब धूप में चौंकता है आदमी घूमता है आईना
जल है मछली में नुमायां और मछली की आँखों में सूरज का डर
बाल्कनी में नहीं कोई आहट खुली हैं खिड़कियाँ खुले हैं दरवाज़े
प्रतीक्षा है अनहोने इतिहास की
पर इतिहास नहीं गुज़रता आक्षितिज फैली सपाट बाल्कनियों से वह गुज़रता है भयानक पुलों और खूनी नदियों के बीच से
दूर तक फैली है रेत और रेत और रेत बढ़ गया बस्तियों से फासला समन्दर का डूबते सूरज और गुल होती रौशनी के साथ बच्चे ढूँढते हैं माँओं की छातियाँ
कहाँ गया नीलघाटी का आबदार सम्मबोधन हिलते हुए पारे का सेन्दूर् का फैलाब पर्वत से अबकी बार नहीं उतरेंगे नबी न बरसेगा आसमान न भटकेंगी आँखे समन्दर पार यायावर पक्षियों की खोज में धूप नहीं रेंगेंगे बाल्कनियों बाल्कनियों रस्सियों पर झूलेंगे साँप
ये कॉरीडोर,ये बॉल्कनियाँ, ये आरामघर एक सन्नाटा है सिलसिलेवार तेजहीन आँखों का ख़ालीपन
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