प्रतिकूल / रामधारी सिंह "दिनकर"
है बीत रहा विपरीत ग्रहों का लग्न - याम;
मेरे उन्मादक भाव, आज तुम लो विराम।
उन्नत सिर पर जब तक हो शम्पा का प्रहार,
सोओ तब तक जाज्वल्यमान मेरे विचार।
तब भी आशा मत मरे, करे पीयूष-पान;
वह जिये सोच, मेरा प्रयास कितना महान।
द्रुम अचल, पवन ले जाय उड़ा पत्ती - पराग;
बुझती है केवल शिखा, कभी बुझती न आग।
मेरे मन हो आश्वस्त सोचकर एक बात,
इच्छा मैं भी उसकी, जिसका यह शम्ब - पात।
साखी है सारा व्योम, अयाचित मिले गान;
मैंने न ईष्ट से कहा, करो कवि - सत्व दान।
उसकी इच्छा थी, उठा गूँज गर्जन गभीर,
मैं धूमकेतु - सा उगा तिमिर का हॄदय चीर।
मृत्तिका - तिलक ले कर प्रभु का आदेश मान,
मैंने अम्बर को छोड़ धरा का किया गान।
मानव की पूजा की मैंने सुर के समक्ष,
नर की महिमा का लिखा पृष्ठ नूतन, वलक्ष।
हतपुण्य अनघ, जन पतित-पूत, लघु - महीयान,
मानव कह, अन्तर खोल मिला सबसे समान।
समता के शत प्रत्यूह देख अतिशय अधीर,
सच है, मैंने छोड़े अनेक विष - बुझे तीर।
वे तीर कि जिनसे विद्ध दिशाएँ उठीं जाग,
भू की छाती में लगी खौलने सुप्त आग।
मैंने न सुयश की भीख माँगते किया गान,
थी चाह कि मेरा स्वप्न कभी हो मूर्त्तिमान।
स्वर का पथ पा चल पड़ा स्वयं मन का प्रदाह,
चुन ली जीवन ने स्वयं गीत की प्रगुण राह।
इच्छा प्रभु की मुझमें आ बोली बार - बार,
दिव को कंचन - सा गला करो भू का सिंगार।