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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ २

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"रुग्ण ही हों तात हे भगवान?"
भरत सिहरे शफर-वारि-समान।
ली उन्होंने एक लम्बी साँस,
हृदय में मानों गड़ी हो गाँस।

"सूत तुम खींचे रहो कुछ रास,
कर चुके हैं अश्व अति आयास।
या कि ढीली छोड़ दो, हा हन्त,
हो किसी विध इस अगति का अन्त!
जब चले थे तुम यहाँ से दूत,
तब पिता क्या थे अधिक अभिभूत?
पहुँच ही अब तो गये हम लोग,
ठीक कह दो, था उन्हें क्या रोग?"
दूत बोला उत्तरीय समेट--
"कर सका था मैं न प्रभु से भेट।
आप आगे आ रहा जो वीर,
आप हों उसके लिए न अधीर।"

प्राप्त इतने में हुआ पुर-द्वार,
प्रहरियों का मौन विनयाचार।
देख कर उनका गभीर विषाद,
भरत पूछ सके न कुछ संवाद।
उभय ओर सुहर्म्य पुलिनाकार,
बीच में पथ का प्रवाह-प्रसार।
बढ़ चला निःशब्द-सा रथ-पोत,
था तरंगित मानसिक भी श्रोत।
उच्च थी गृहराजि दोनों ओर,
निकट था जिसका न ओर न छोर।
राजमार्ग-वितान-सा था व्योम,
छत्र-सा ऊपर उदित था सोम।

"क्या यही साकेत है जगदीश!
थी जिसे अलका झुकाती शीश।
क्या हुए वे नित्य के आनन्द?
शान्ति या अवसन्नता यह मन्द?
है न क्रय-विक्रय, न यातायात,
प्राणहीन पड़ा पुरी का गात।
सुन नहीं पड़ती कहीं कुछ बात,
सत्य ही क्या तब नहीं हैं तात?
आज क्या साकेत के सब लोग,