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पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ९
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"तो क्या मैं विनोद करती हूँ!" बोली उनसे वैदेही,
अपने लिए रुक्ष हो तुम क्यों, होकर भी भ्रातृ-स्नेही?
आज उर्मिला की चिन्ता यदि, तुम्हें चित्त में होती है,
कि "वह विरहिणी बैठे मेरे, लिये निरन्तर रोती है।"