भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निज स्वदेश ही / श्रीधर पाठक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:06, 31 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीधर पाठक }} {{KKCatKavita‎}} <poem> :निज स्वदेश ही एक सर्व-पर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निज स्वदेश ही एक सर्व-पर ब्रह्म-लोक है
निज स्वदेश ही एक सर्व-पर अमर-ओक है
निज स्वदेश विज्ञान-ज्ञान-आनंद-धाम है
निज स्वदेश ही भुवि त्रिलोक-शोभाभिराम है
सो निज स्वदेश का, सर्व विधि, प्रियवर, आराधन करो
अविरत-सेवा-सन्नद्ध हो सब विधि सुख-साधन करो