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होलिका पंचक / प्रतापनारायण मिश्र
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भारत सुत खेलत होरी ।।
प्रथम अविद्या अगिनी बारिकै, सर्वसु फूँकि दियो री ।
आलस बस पुरिखन के जस की, चूरि उड़ाइ बहोरी ।
रंग सब भंग कियो री ।।
छकै परस्पर बैर बारुणी, सबको ज्ञान गयो री ।
घरन-घरन भाइन-भाइन में, जूता उछरि रह्यो री ।
बकैं सब आपस में फोरी ।।
बड़े-बड़े बीरन के वंशज, बनि बैठे सब गोरी ।
नाचि रिझावत परदेसिन को, लाज नहीं तनको री ।
जु ले लहँगौ कौ छोरी ।।
निज करतूत भयो मुख कारो, ताको सोच तज्यो री ।
देखो यह परताप कुमति को, दुख में सुख समझ्यो री ।
निलज सब देश भयो री ।।