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ख़लिश-ए-हिज्र-ए-दायमी न गई / मुनीर नियाज़ी
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ख़लिश-ए-हिज्र-ए-दायमी न गई|
तेरे रुख़ से ये बेरुख़ी न गई|
पूछते हैं के क्या हुआ दिल को,
हुस्न वालों की सादगी न गई|
सर से सौदा गया मुहब्बत का,
दिल से पर इस की बेकली न गई|
और सब की हिकायतें कह दीं,
बात अपनी कभी कही न गई|
हम भी घर से 'मुनिर' तब निकले,
बात अपनों की जब सही न गई|