भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभाव / नीलेश रघुवंशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बार फिर मेरे बैग को

मत टटोलना माँ

तंगहाली के सपनों के सिवा

कुछ नहीं है उसमें।


जानती हूँ ख़ूब फबेगी तुझ पर वह साड़ी

पर साड़ी सपनों से

ख़रीदी नहीं जा सकती ।


काश ख़रीद पाती मैं तुम्हारे लिए

सिंदूर और साड़ी

पिता के लिए नया कुर्ता

भाई के लिए मफ़लर

जबान होती बहन के लेए कुछ सपने ।


ख़ाली जेबों में हाथ डाले

हर रोज़ जाती हूँ बाजा़र

और घंटों करती रहती हूँ वंडो-शॉपिंग ।