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जब इरादा करके हम निकले हैं मंज़िल की तरफ़/ सतपाल 'ख़याल'

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ग़ज़ल
जब इरादा करके हम निकले हैं मंज़िल की तरफ़
ख़ुद ही तूफ़ाँ ले गया कश्ती को साहिल की तरफ़

बिजलियाँ चमकीं तो हमको रास्ता दिखने लगा
हम अँधेरे में बढ़े ऐसे भी मंज़िल की तरफ़्

क्या जुनूँ पाला है लहरों ने अजब पूछो इन्हें
क्यों चली हैं शौक़ से मिटने ये साहिल की तरफ़

फ़ैसला मक़तूल के हक़ में नहीं होगा कभी
ये वक़ा
लत और मुंसिफ़
, सब हैं क़ातिल की तरफ़

है अँधेरी कोठरी मे नूर की खिड़की 'ख़याल'
आँख अपनी बंद करके देख तो दिल की तरफ़