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घर शान्त है / मंगलेश डबराल

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धूप दीवारों को धीरे धीरे गर्म कर रही है

आसपास एक धीमी आँच है

बिस्तर पर एक गेंद पड़ी है

किताबें चुपचाप हैं

हालाँकि उनमें कई तरह की विपदाएँ बंद हैं


मैं अधजगा हूँ और अधसोया हूँ

अधसोया हूँ और अधजागा हूँ

बाहर से आती आवाज़ों में

किसी के रोने की आवाज़ नहीं है

किसी के धमकाने या डरने की आवाज़ नहीं है

न कोई प्रार्थना कर रहा है

न कोई भीख माँग रहा है


और मेरे भीतर ज़रा भी मैल नहीं है

बल्कि एक ख़ाली जगह है

जहाँ कोई रह सकता है

और मैं लाचार नहीं हूँ इस समय

बल्कि भरा हुआ हूँ एक ज़रूरी वेदना से

और मुझे याद आ रहा है बचपन का घर

जिसके आँगन में औंधा पड़ा मैं

पीठ पर धूप सेंकता था


मैं दुनिया से कुछ नहीं माँग रहा हूँ

मैं जी सकता हूँ गिलहरी गेंद

या घास जैसा कोई जीवन

मुझे चिन्ता नहीं

कब कोई झटका हिलाकर ढहा देगा

इस शान्त घर को ।


(1990)