भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वन-वन, उपवन / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
					
										
					
					बन-बन, उपवन-- 
छाया उन्मन-उन्मन गुंजन, 
नव-वय के अलियों का गुंजन!  
रुपहले, सुनहले आम्र-बौर, 
नीले, पीले औ ताम्र भौंर, 
रे गंध-अंध हो ठौर-ठौर 
उड़ पाँति-पाँति में चिर-उन्मन 
करते मधु के बन में गुंजन!  
बन के विटपों की डाल-डाल 
कोमल कलियों से लाल-लाल, 
फैली नव-मधु की रूप-ज्वाल, 
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन 
करते स्पन्दन, करते-गुंजन!  
अब फैला फूलों में विकास, 
मुकुलों के उर में मदिर वास, 
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास, 
जीवन-मधु-संचय को उन्मन 
करते प्राणों के अलि गुंजन!   
रचनाकाल: जनवरी’ 1932
 
	
	

