भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपना होना / मुकेश मानस
Kavita Kosh से
Mukeshmanas (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:37, 4 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} <poem> अपना होना कई दिन गुजरे खूब रहा उदास कहीं कोई रोशनी नह…)
अपना होना
कई दिन गुजरे
खूब रहा उदास
कहीं कोई रोशनी नहीं
हर सिम्त बेआस
इस बेआस दिनों में
खुद को जाना
अपने होने को पहचाना
1994