भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अन्धेरा /मुकेश मानस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्धेरा


अन्धेरा मुझे घेरता है
मैं भागता हूं

मैं भागता हूं
और भाग नहीं पाता हूं
अन्धेरे के पंजों में
घिर-घिर जाता हूं

अन्धेरे के सपने
मुझे ही क्यों आते हैं
मैं ही क्यों फंसता हूं
अन्धेरे के चंगुल में

जागने पर सुबह क्यों होती है?
सूरज क्यों निकलता है?
1995