हाइकु / कमलेश भट्ट 'कमल'
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मुँह चिढ़ाती
लम्बे चौड़े पुल को
सूखती नदी ।
ऊब चले है
वर्षा की प्रतीक्षा में
पैड़-पौधे भी।
पीने लगा है
धरती का भी पानी
प्यासा सूरज।
निकली नहीं
कन्जूस बादलों से
एक भी बूँद ।
तरस गये
पहचान को खुद
सावन-भादौ ।
कहो तो सही
मन प्राणो से तुम
वक्त सुनेगा ।
प्रीत हाँ प्रीत
दुनिया में सुख की
एक ही रीत ।
आप से मिले
तो लगा क्या मिलना
किसी और से ।
ढ़ूंढता रहा
खुद को दिन रात
ढूंढ न पाया ।
छोटा कर दे
रातों की लम्बाई भी
गहरी नींद ।
छीन ही लिया
नदी का नदीपन
प्यासे बाँधों ने ।
रिश्तों से ज्यादा
तनाव बसते है
घरों में अब ।
युग-युगो से
सोए पड़े पहाड़
जागेंगे कब?
गावों से लाता शुद्ध आक्सिजन भी वश न चला
भीड़ तो बढ़ी विरल हो चले है रिश्ते परंतु
रात होते ही गोलबन्द हो गये चान्द सितारे
घिर गया है वैशैली लताओं से जीवन वृक्ष
बुझते हुए पल भर को सही लड़ी थी लौ भी
मैं नहीं हूँ मैं, तुम भी कहाँ तुम सब मुखौटॆ है