भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होते गये / विजय वाते
Kavita Kosh से
वीनस केशरी (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:44, 11 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= गज़ल / विजय वाते }} <poem> जैसे जैसे …)
जैसे जैसे हम बड़े होते गये,
खूठ कहने मे खरे होते गये |
चाँद बाबा गिल्ली डंडा इमलियाँ,
सब किताबों के सफे होते गये |
अब तलाक तो दूसरा कोई न था,
रफ्ता रफ्ता तीसरे होते गये |
एक बित्ता कद हमारा क्या बढ़ा,
हम अकारण ही बुरे होते गये |
जंगलों में बागबां कोई नहीं,
इसलिए पौधे हरे होते गये |