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शब्दों के पंख / राधेश्याम बन्धु
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सपनों के पंख
नोंचकर, उड़ने का अर्थ न छीनो,
नीड़ों का चैन लूटकर, जीने का अर्थ न छीनो।
पूजाघर कत्लघर हुए
मज़हब ने घाव यों दिए,
शब्दों के पंख कटाकर
हम जटायु की तरह जिए।
खंजर को
पीठ में गड़ा, मिलने का अर्थ न छीनो,
मेहनत कश चिड़ियों को भी
कौवों ने क्यों रुला दिया,
वफ़ादार मैना को भी
बाज़ों ने क्यों झपट लिया।
जीभ में
सलाख चुभोकर, गाने का अर्थ न छीनो,
पैनी जो चोंच हो गई
पिंजड़े के जुल्म मिट गए
हमने जो पंख पसारा
पर्वत के होश उड़ गए।
पाँवों में
बेड़ियाँ पिन्हा, बढ़ने का अर्थ न छीनो,
सपनों के पंख नोचकर, उड़ने का अर्थ न छीनो।