हादसों पर गोष्ठियां / मनोज श्रीवास्तव
हादसों पर गोष्ठियां
वे गोष्ठियों में लगे होते हैं जैसे कामी कामनियों संग
जितने हादसे और भ्रष्टाचार उतनी ही गोष्ठियां, उन्हें हादसों का इंतज़ार भी नहीं करना पड़ता, गोष्ठी-कक्षों से निकलते ही कोई हादसा उनका स्वागत करता है --फटी आंखें एवं मुंह बाए हुए-- और वे पुन: गोष्ठी कक्षों में चले जाते हैं
उन्हें ईश्वर को धन्यवाद देने का मौक़ा भी नहीं मिलता कि 'भगवन! हादसों को आबाद रखना ऐसा हमारी रोजी-रोटी के लिए बहुत ज़रूरी है'
उन्हें क्या पड़ी है कि वे हादसों के न होने की युक्तियाँ करें, समय रहते सरकार को आग़ाह करें कि हादसे अंजाम तक न पहुंच पाएं
उन्हें बड़ी महारत हासिल है हादसों के बाद बहस करने में, हम सभी क्या सारा आवाम जानता है कि उनकी नपुंसक बहस कोई नतीजा प्रसवित नहीं कर पाएगी.
(सृजन संवाद, सं. ब्रजेश, अंक ९, २००९, लखनऊ)