भगवान का उद्व्रजन / मनोज श्रीवास्तव
भगवान का उद्व्रजन
वे भगवान थे...
हां, भगवान ही तो थे
ऊब गए थे
नगर-वासियों से,
नफ़रत हो गई थी
इन्सानों से,
तब, चढ़ने लगे थे
ऊंचे-ऊंचे हत्यारे पहाड़,
भागने लगे थे
दुर्गम वनों, रेगिस्तानों में,
बनाने लगे थे अपने घर
हिम कंदराओं, पथरीली गुफाओं में,
और सागर-महासागर के मध्यस्थ,
रहने लगे थे
जंगली जानवरों की पहरेदारी में,
छिपने लगे थे
घटा-छेदक पेड़ों की शाखाओं पर
क्यों ऊबने लगे थे
अपने अन्धभक्तों से वे
जो उनके दर्शन-सुख के लिए
अनुप्रस्थ भेद देते रहे हैं
नदी-नाले, पर्वत-पठार
और उत्तुंग शिखर,
बावले हो
उनके भजन-कीर्तन गाते
बुढापा, बीमारी और दैहिक तापों पर
होकर सवार
चल पड़ते हैं हजारों मेल--
दुर्भेद्य उत्तल-अवतल मार्गों पर
सिसकारियों को मुंह में दबोचे
और टींसते घुटनों में
इच्छाशक्ति की करेन्ट का
झटका देकर
आखिर, क्यों भगवान
त्रास देने लगा दूर जाकार,
अपनी भाविताव्यता-संभाव्यता से
छल-प्रपंच कर्के,
अपनी दिव्यता की चकाचौंध से
आमन्त्रित करने लगा उसे
आह!
इतनी! इतनी!! दूर से
खेलता है भगवान हमसे!!!
धकेल देता है--
पहाड़ों के नीचे
जमीन खिसकाकर
पैरों तले से--
भू-स्खलन भूस्खलन खेलकर,
या, कर देता है--
बादल-विस्फोट हम पर,
दौड़ा देता है--
तूफानों के खौफनाक घोड़े,
सत्संगी पंडालों को
अग्निवेदी बनाकर,
भर लेता है अपना पेट
मानावाहुति से--
दिर्घायु के कामनार्थियों को
अल्पायु के शूलों वाले खड्ड में
अकस्मात् धकेलकर
उसकी ध्वंस-क्रीड़ा से
कौन रोक सकेगा उसे?
वह शून्य से शून्य तक
यानी, अनन्त, अज्ञेय काल तक
लुढकाता रहेगा
उल्काएं हमारी ओर,
फिर भी, हम प्रार्थना करते रहेंगे
उसमें शत-प्रतिशत ध्वंसात्मक ईश्वरत्त्व से,
एक सच्चे झूठ से
सत्य होने का
गुहार-मनुहार करते रहेंगे--
पूरी श्रद्धा और कर्मकांडों से.