भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर के विरूद्ध / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:35, 5 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>बहुत कुछ पाने की चाह में सब कुछ गंवा बैठा रामअवतार। रामअवतार; ए…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत कुछ पाने की चाह में
सब कुछ गंवा बैठा
रामअवतार।
रामअवतार;
एक चौकीदार
जो रात को जागता है
और भरी दोपहरी में सपने देखता है।
बुजुर्ग कहते हैं
सफेदझक दोपहरी के सपने
कभी साकार नहीं होते
लेकिन सपने देखना
उसकी मजबूरी है।
जब वह जागता है
कहने को दुनिया सोती है
मगर रात भर वह देखता है
लोग कैसे कुलबुलाते हैं?
और
कैसे हो जाते हैं लोग
अलकतरा से भी काले,
जहरीले नाग से भी नंगे!
सोने के उस वक्त
बचाव दस्ते के लोग
कैसे नियोजित करते हैं दंगे?
राम अवतार
लाठी ठोकता
बहुत कहता है
जागते रहो!
मगर
शहर है कि, आंख खुली होने पर भी
बहुत सोता है
रोता है
राम अवतार का चौकीदार
शहर के विरूद्ध
रचे जा रहे
लगातार षड्यंत्र को देखकर
रामअवतार की मुठ्ठी
बहुत कसती है
मगर लाठी की हद
नहीं लाघं पाती।
लोग हैं कि,सोये हैं चैन से
नगं-धडंग पलगों पर
मगर
राम अवतार को इंतजार है,
रात सरीखी भोर का।