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विद्यार्थी भीड़ में / त्रिलोचन
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चुप्पी तोड़ी, विद्यार्थी ने भी मुँह खोला,
"उसी भीड़ में बुरी तरह मैं फँसा हुआ था ।
लाख छटपटाया, हाथों ने किंतु न तोला
एक बार भी तन को, जैसे धँसा हुआ था
सुग्राही दलदल में । संमुख डँसा हुआ था
एक व्यक्ति भीड़ के नाग का, बदन खुला था
दाँत दीखते थे, मानो शव हँसा हुआ थ
निखिल परिग्रह संग्रह पर, वायु में घुला था
महामरण का भय, प्रिय जीवन विवश तुला था
क्रूर काल के हाथों, हाहाकार खो गए
सिर पर चढ़ा ख़ून, आँसू से नहीं धुला था,
दबे हुए बात की बात में बिदा हो गए ।
पत्नी कहीं रो रही थी, पति कहीं विकल था,
पुत्र कहीं पछाड़ खाते थे, नाश अचल था ।"