भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मायूस मसूरी की खामोशी / मनोज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:01, 20 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ''' मायूस म…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मायूस मसूरी की खामोशी

(दिनांक १५ जून, २०१०; माल रोड के नीचे
एक गूंगे चट्टान पर बैठकर)

पर्वतीय सन्नाटे को तोड़ने वाली
नहीं रहेगी चीड़ की खामोशी,
पलाश के कंकाल पर बैठे
उदास उल्लुओं से पूछो!
'कहां गए--
अंधे रास्तों पर
कहकहेबाज उजले लोग ?'

चम्पक वृक्षों पर
चुटकले सुनाने वाले विहंग मित्र
अपनी मायूसियों से बाहर निकल
नहीं बुला पा रहे हैं
अपनी मिन्नतों-मन्नतों से
छमकती देवी चम्पावती को

देवदारुओं के पाँव
उखड़ चुके हैं जमीन से,
लेकिन, शिलाओं पर टिके हुए हैं
डगमगा-डगमगाकर
अपनी नाखूनी जड़ों से
एक दानवी आत्मविश्वास के साथ

अरे, देखो!
उनकी निष्पात डालियाँ
तीरों की तरह धंसी हुई हैं
उनकी देह पर,
उनके पांवों के नीचे गहराई में
मिथक बन चुके झरनों पर
भेड़ियों की छायाएं
अभी भी निरीह शिकार जोह रही हैं
और जैसे देख रही हैं सपने
झुण्ड में आकर प्यास-बुझाते हिरणों के
जिन पर वे टूट पड़ेंगे
गुम्फित झाड़ियों से अट्टहास निकलकर.