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आँसू-छन्द / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु
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बेगुनाहों के इस लहू में धर्म -ईमान सब खो गया, यहाँ न जाने कौन बहेलिया मौत का चारा बो गया । चीख-कराहें लथपथ धरती उड़ती है बारूदी गन्ध, कायरता वाली करतूतें निश-दिन लिखती आँसू-छन्द। मासूमों का नन्हा बचपन छिपते सूरज-सा हो गया । हथियारों के सौदागर भी अमन के नारे लगा रहे । पहने मुखौटे मानवता के भस्मासुर को जगा रहे। बेबसी की इस क़त्लग़ाह में मानव ही कहीं सो गया। </poem>