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उनसे जब भी मुसाफ्हा कीजे / सर्वत एम जमाल
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उन से जब भी मुसाफ्हा कीजे
उँगलियाँ अपनी गिन लिया कीजे
दूध में हल तो हो गया पानी
अब ज़रा दूध को जुदा कीजे
बेडियाँ रात ही में टूटी थीं
रात कट जाए यह दुआ कीजे
बंद कमरे घुटन उगाते हैं
कुछ घड़ी धूप में रहा कीजे
आपको भी वतन पे प्यार आया
इस मरज़ की कोई दवा कीजे
इन्कलाब, इस जगह पे, नामुमकिन