भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क़र्ज़ / गुलज़ार
Kavita Kosh से
Abha Khetarpal (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:24, 24 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKRachna |रचनाकार=गुलज़ार |संग्रह = पुखराज / गुलज़ार }} <poem> इतनी मोहलत कहा…)
इतनी मोहलत कहाँ कि घुटनों से
सिर उठाकर फ़लक को देख सको
अपने तुकडे उठाओ दाँतो से
ज़र्रा-ज़र्रा कुरेदते जाओ
वक़्त बैठा हुआ है गर्दन पर
तोड़ता जा रहा है टुकड़ों में
ज़िन्दगी देके भी नहीं चुकते
ज़िन्दगी के जो क़र्ज़ देने हों