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फूलों का काँटों-सा होना/ उदयप्रताप सिंह

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कांटे तो कांटे होते हैं उनके चुभने का क्या रोना ।

मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।


युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की खुशबू आती है

जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।


बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है

मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।


दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है

जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसाना बन कर रोना ।


वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है

अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में कलम डुबोना ।