भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुख के कितने पर्वत चढ़ने / ब्रजमोहन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:47, 8 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हमें / ब्रजमोहन }} दुख के ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुख के कितने पर्वत चढ़ने होंगे अभी और रे

रात के अंधेरों में छिपी है कहाँ भोर रे...


चलते-चलते राह मिली न चाह मिली न छाँव

उम्मीदें पत्तों-सी टूटीं, पीछे छूटे पाँव

टूटी न फिर भी कैसे जीवन की डोर रे...


सूरज जलता धरती जलती जलता है आकाश

तेरा-मेरा जीवन पीकर बुझती किसकी प्यास

हँसते हैं किस पे काली दुनिया के चोर रे...


कितने सागर कितनी नदियाँ कितने तूफ़ाँ बाक़ी

कितने सपने कितनी चाहें कितने अरमाँ बाक़ी

नाचेंगे किस बारिश में मन के सब मोर रे...