भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वरदवीणा हुई दीना / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:32, 24 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |संग्रह=कुहकी कोयल खड़े पेड़ …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

करण का रण रवण का रण
मरण का रण लड़े क्षण क्षण
हटे हठ से नहीं ठिठके
कहीं ठहरे नहीं बिक के
गले मिलते रहे गल के
शरण संबल रहे बल के
रची रचना रुचिर वसना
नलिन नयना विशद वसना
गए तुम कर गए सूना
भुवन भव है विरस ऊना
‘समासीना’ वह प्रवीणा
वरद वीणा हुई दीना
बचे घन के बँधे परिकर
तरल तम के रुँधे पुष्कर॥
वयन विदलित भारती है,
नयन विगलित भारती है॥
फिर उदय हो सदय दिनकर
किरण चुंबन करे जी भर
जलज जागें, विमुख मुख पर
बहे ‘परिमल’, गहें सुख स्वर।

रचनाकाल: १०-११-१९६१