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प्रस्तुत. / सुकान्त भट्टाचार्य

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काली मौतों ने आज बुलाया है स्वयंवर में
कई दिशाओं में कई हाथों को हिलते देखता हूँ इस बड़ी-सी दुनिया में
डरा हुआ मन खोजता है आसान रास्ता, निष्ठुर नेत्र;
इसलिए ज़हरीले स्वाद से भरी इस दुनिया में
सिर्फ़ मन के द्वन्द्व निरन्तर फैलाते हैं आग ।

अन्त में टूटे हैं भ्रम, आया है ज्वार मन के कोने में
तेज़ भौहें तनी हैं कुटिल फूलों के वन में
अभिशापग्रस्त वे सभी आत्माएँ आज भी हैं बेचैन
उनके सम्मुख लगाया है प्राणों का मज़बूत शिविर
ख़ुद को मुक्त किया है आत्म-समर्पण में ।

चाँद के सपने में धुल गया है मन जिस समय के दौरान
उसे आज दुश्मन जान कर लिया है पहचान
धूर्तों की तरह शक्तिशाली नीच स्पर्द्धाएँ
मौक़ा पाने पर आज भी मुझे झपट सकती हैं
इसीलिए सतर्क हूँ, मन को गिरवी नहीं रखा मैंने ।

बीते हैं असंख्य दिन प्राणों के व्यर्थ रुदन में
नर्म सोफ़े पर बैठ कर क्रान्तिकारी चेतना के उद्बोधन में
आज लेकिन जनता के ज्वार में आई है बाढ़
प्यासे मन में रक्तिम पथ के अनुसरण की कामना,
कर रही है पृथ्वी पहले की राह का संशोधन ।

उठाया है हथियार अब सामने दुश्मन चाहिए
क्योंकि महामारण का निर्दयी व्रत लिया है हमने आज
जटिल है संसार, जटिल है मन का सम्भाषण
उनके प्रभाव में रखा नहीं मन में कोई आसन,
आज उन्हें याद करना भूल होगी यह जानता हूँ मैं ।

मूल बंगला से अनुवाद : नीलाभ