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शकुंतला-1 / सुमन केशरी
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हे सखी 
यह तो याद नहीं कि 
क्रोध दुर्वासा का था या राजा  का
पर 
विरह की आग से ज्यादा तीखी थी
अपमान की ज्वाला
विश्वामित्र और मेनका की पुत्री
तापसी बनी खड़ी थी
सर झुकाए
पिता कण्व ने सिखाया था
अपमान झेलते कभी चुप न रहूँ
सर ऊँचा रखूँ सत्य के बल पर
सो सखी
वह अँगूठी न थी 
जिस से मैं पहचानी गई
वह मान की शक्ति थी
जिस से मैं जानी गई ।
 
	
	

