भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक वाकया / साहिर लुधियानवी

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:04, 6 फ़रवरी 2011 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधियारी रात के आँगन में ये सुबह के कदमों की आहट ये भीगी-भीगी सर्द हवा, ये हल्की हल्की धुन्धलाहट

गाडी में हूँ तनहा महवे-सफ़र और नींद नहीं है आँखों में भूले बिसरे रूमानों के ख्वाबों की जमीं है आँखों में

अगले दिन हाँथ हिलाते हैं, पिचली पीतें याद आती हैं गुमगश्ता खुशियाँ आँखों में आंसू बनकर लहराती हैं

सीने के वीरां गोशों में, एक टीस-सी करवट लेती है नाकाम उमंगें रोती हैं उम्मीद सहारे देती है

वो राहें ज़हन में घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूँ कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूँ </poem>