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श्रीनर-नारायण-स्तुति/ तुलसीदास

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श्रीनर-नारायण-स्तुति
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देव नौमि नारायणं नरं करूणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं।
अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं।1।
श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।
तरूण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन-राकेश, कर-निकर-हायं।2।
सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं।
अरूण पदकंज-मकरंद-मंदाकिनी मधुप -मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं।3।
शक्र-प्रेरित घेार मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी।
मार्कण्डेय मुतिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी।4।
पुण्य वन शैलसरि बाद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं।
सिद्ध-योगींद्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं।5।
मान मनभंग, चितभंग मद ,क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन -भर्ता।
द्वेष -मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता।6।
विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।
धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा।7।
परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न्हिं हाथ वर विरति -यष्टी।
दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश, त्राहि हरित्र त्राहि हरि,दास कष्टी।8।
दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति,खेद, मति मोह नाशी।
देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी।9।