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विनयावली(राग जैतश्री ) / तुलसीदास

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विनयावली(राग जैतश्री)
(83)

कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय।

अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे राम मन बचन-काय।।
 
लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
 
जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन-बाय।।
 
मध्य बसस धन हेेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
 
राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय।।
 
सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।

सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय।।
 
अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय।
 
सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय।।
 
जिन्ह लगि निज परलोक बिगार्यो, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।

तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर्यौ गयँद जाके एक नाँय।।