भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ईश वन्दना / मनमोहन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:08, 20 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनमोहन |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> धन्य हो परमपिता ! सब…)
धन्य हो परमपिता !
सबसे ऊँचा अकेला आसन
ललाट पर विधान का लेखा
ओंठ तिरछे
नेत्र निर्विकार अनासक्त
भृकुटि में शाप और वरदान
रात और दिन कन्धों पर
स्वर्ग इधर नरक उधर
वाणी में छिपा है निर्णय
एक हाथ में न्याय की तुला
दूसरे में संस्कृति की चाबुक
दूर -दूर तक फैली है
प्रकृति
साक्षात पाप की तरह ।