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गोपी बिरह(राग कान्हरा) / तुलसीदास

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गोपी बिरह(राग कान्हरा)
  
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हे हम समाचार सब पाए।
 अब बिसेष देखे तुम देखे,
हैं कूबरी हाँक से लाए।

 मथुरा बड़ो नगर नागर जन,
 जिन्ह जातहिं जदुनाथ पढ़ाए।
समुझि रहनि, सुनि कहनि बिरह ब्रन,
 अनख अमिय ओषध सरूहाए।2।

 मधुकर रसिक सिरोमनि कहियत,
कौने यह रस रीति सिखाए।
 बिनु आखर को गीत गाइ कै
चाहत ग्वालिनि ग्वाल रिझाए।3।
 
फल पहिले हीं लह्येा ब्रजबासिन्ह,
 अब साधन उपदेसन आए।
तुलसी अलि अजहुँ नहीं बुझत,
कौन हेतु नँदलाल पठाए।4।


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कौन सुनै अलि की चतुराई।
अपनिहिं मति बिलास अकास महँ चाहत सियनि चलाई।1।

सरल सुलभ हरि भगति सुखाकर निगम पुराननि गाई।
तजि सोइ सुधा मनोरथ करि करि को मरिहै री, माई।2।

जद्यापि ताको सोइ मारग प्रिय जाहि जहाँ बनि आई।
मैन के दसन कुलिस के मोदक कहत सुनत बौराई।3।

सगुन छीरहीन बसत ब्रज तिहुँ पुर बिदित बड़ाई।
 आक दुहन तुम कह्यो, सो परिहरि हम यह मति नहिं पाई।4।

जानत है जदुनाथ सबनि की बुधि बिबेक जड़ताईं ।
तुलसिदास जनि बकहिं मधुप सठ! हठ निसि दिन अँवराई।5।