भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रियजन / मुसाफ़िर बैठा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:00, 3 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुसाफ़िर बैठा |संग्रह=बीमार मानस का गेह / मुसाफ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रियजन से इतना अतल तलछटहीन
होता है हमारा राग
कि आपस में हर व्यापार का मान
समलाभ ही आता है

इस व्यापार की हर चीज की तौल
दिल की पासंगहीन जादुई तुले पर
आंकी गई होती है
जिसके हर पलड़े का भार
हर बटखरे की तौल पर
हर हमेशा समान ही आता है

यदि हम बदल लें
यकायक अपना पता ठिकाना
तो भी प्रियजन से
नहीं रहता छुपा रहता अधिक समय तक
हमारा नया घर नया ठिकाना
कारण कि कम से कम इतनी तो नहीं होती
हमारे आपसी संवादों में टूट
कि बात बात में आपसदारी की
कोई नई बात उन्हें न हो सके मालूम

इत्तिफाकन अगर आ धमकना चाहे
हमें बाखबर किए बिना ही हमारे घर
दूरी वश याद आता हमारा कोई आत्मीय
हमारे बीच की याद की बारंबारता को कम करने
तो यकीनन यादों के वद्र्धमान कोटे में
सेंध लगती जाती है
उस आत्मीय का हमसे रूबरू रहने तक

मगर यह सेंधमारी भी
कोई घाटे का कारक नहीं बल्कि
ज्यों ज्यों बूड़ै स्याम रंग
त्यों त्यों उज्ज्वल होय
की मानिंद
हमारे लिए मुनाफे का सौदा बन आता है

प्रियजन हमें महज सुख सुकून बांटते हैं
और भरसक हमारा दुख दर्द काढ़ते हैं ।

2006