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माँ / मीना अग्रवाल

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माँ ! तुम तो
मुझे अकेला छोड़
चली गई हो दूर
बहुत दूर,
तुमने नहीं सिखाया
हिम्मत से जीना,
समय की मार को मज़बूती से सहना,
शायद इसलिए कि तुम्हें विश्वास था कि कहीं भी
किसी भी परिस्थिति में
तुम्हारी ये बेटी
हारेगी नहीं, टूटेगी नहीं !
पर माँ, आज मैं बहुत टूट गई हूँ
आज बिल्कुल अकेली हो गई हूँ,
आज तो दोगी
मुझे सांत्वना !
और मेरा हाथ पकड़ मेरी उँगली पकड़
चढ़ाओगी
उन सीढ़ियों पर
जिन पर चढ़ना
मैं भूल गई हूँ, डरने लगा है मन
आगे बढ़ने में और ऊँची-नीची,
टेढ़ी-मेढ़ी सीढ़ियों पर चढ़ने में !
माँ ! आओ एक बार
दो मुझे हौसला
ऊपर चढ़ने की हिम्मत जगाओ,
उर में समाकर
मेरे उदास और
एकाकी मन को
सहलाओ,
कोई ऐसी युक्ति बताओ
कि जीवन की शेष सीढ़ियाँ आस्था, विश्वास और
धैर्य के साथ
हिम्मत से चढ़ सकूँ,
और पा सकूँ उस सच्चाई को
उस यथार्थ को
जिससे मैं बहुत दूर हूँ, माँ !
तुम आओगी न !
फिर तुम्हारी ये बेटी कभी,
कहीं, किसी भी परिस्थिति में न तो डगमगाएगी और
न कभी मात खाएगी !