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हवा / महेश चंद्र पुनेठा

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कवि-चित्रकार मित्र रोहित जोशी के लिए

हवा का कोई घर नहीं होता
हर घर हवा का होता है
बंद घरों में हवा का दम घुटता है
परदे हवा को पसंद नहीं
हवा को हवा होना ही हर्षाता है
कोई बाधा भी कहाँ रोक पाती है हवा को
हवा का कौन अपना, कौन पराया ?

उसे तो बस बहना आता है
फितरत नहीं ठहरना उसकी
ठहरे जल से मिलती है जब
तरंग पैदा कर देती है वहाँ
रेत पर कोई सुंदर चित्र
कठोर चट्टान को भी बना लेती है कैनवास अपना
एक कुशल चित्रकार है हवा

गुलशन में रंगो-बू से मिलकर
सुंदर-सुंदर कविता रचती है हवा
हर मौसम को अपने रंग में रंग
फिर उसका नाम पाकर बहती है हवा

हवा ...हवा ....हवा है
हर जिगर में बसती है हवा
हवा साम्यवादी है
गुनगुनाती ,गाती शोर मचाती है हवा
बियाबानों से गुजरते
अपनी मस्ती में ही आगे बढ़ती जाती है हवा

कब रोके रूकी है हवा
पहाड़ों से मैदानों तक
समुद्रों से रेगिस्तानों तक
बहना चाहती है हवा
हवा को हवा ही रहने दो
बस उसे यूँ ही बहने दो ।