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भाषा / नरेश अग्रवाल
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उन्हें हमारी भाषा बोलते समय
सम्भल-सम्भल कर बोलना पड़ता था
फिर भी कई दिनों तक वे हमारे साथ रहे
और हमारे सवालों का जवाब देते रहे
वे जब चुप रहते थे
उनके लाल होठों में यहाँ की खुबसूरती दिखाई देती थी।
हम पके हुए सेब तोड़ना चाहते थे एक बगीचे से
उन्होंने ऐसा करने से मना किया
एक दो सेव के न रहने पर फर्क भी क्या पड़ता बगीचे को
लेकिन उन्होंने इशारे से बाजार का रास्ता दिखाया
हमारी भाषा और आग्रह में जो संवेदना थी
उसे न समझ पाने का हमें दुख हुआ।