भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ / नीलेश रघुवंशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ बेसाख़्ता आ जाती है तेरी याद

दिखती है जब कोई औरत ।


घबराई हुई-सी प्लेटफॉम पर

हाथों में डलिया लिए


आँचल से ढँके अपना सर

माँ मुझे तेरी याद आ जाती है ।


मेरी माँ की तरह

ओ स्त्री


उम्र के इस पड़ाव पर भी घबराहट है

क्यों, आख़िर क्यों ?


क्य पक्षियों का कलरव

झूठमूठ ही बहलाता है हमें ?