भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वर्ग / अनिल विभाकर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:14, 16 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिर्फ़ आस भर है आसमान
आसमान में नहीं है कहीं स्वर्ग

छान रहे हैं कब से हम अंतहीन आकाश
लौट आए अंतरिक्ष-यात्री चंद्रलोक से
देखा है करीब से कई ग्रह-पिंडों को
बंजर हैं सारे ग्रह-पिंड

कहीं नहीं मिला कोई जीवन

चाहे कितना भी बड़ा हो आसमान
जितना भी हो विस्तृत
किसी कल्पित स्वर्ग में नहीं
वह उतरता है तो इसी धरती पर

नदियों में उतरता है पूरा का पूरा आसमान
पसरता है झील में
दिन भर का थका-हारा सूरज विश्राम लेता है अरब सागर में
तरोताजा हो कर, सुबह-सुबह
निकलता है पहाड़ों के पीछे से

आसमान में नहीं है कोई सागर
जहां सूरज स्नान कर सके
थक-हारकर विश्राम कर सके
उसे प्रिय है बंगाल की खाड़ी स्नान के लिए
प्रिय है विश्राम के लिए अरब सागर

लहरों पर लचकने के लिए
चाँद को भी चाहिए झील और नदी
आसमान में नहीं है कहीं नदी, कोई झील
आसमान में नहीं है लुहार की भाथी
नहीं है हल

न तो करघे, न कपास, न सूत
न खुरपी, न कुदाल
न ढिबरी, न लालटेन
न ढोल, न शहनाई
खोमचे, लोखर-नरहनी
छेनी-हथौड़े कुछ भी तो नहीं है आसमान में

न बया के लिए तिनके
न गोरैया के लिए धान
न तितली के लिए फूल
न अलाव के लिए लकड़ियाँ
स्वर्ग के लिए ज़रूरी है इन चीज़ों का होना
बेज़रूरत की चीज़ भी नहीं है आसमान में ।