भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सांप / राकेश प्रियदर्शी

Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:27, 22 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश प्रियदर्शी |संग्रह=इच्छाओं की पृथ्वी के …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बिल्कुल बहरा होता है सांप

किसी की नहीं सुनता है वह


इस लोकतन्त्र में

कुछ भी नहीं सुनाई देता है उसे


सबको काटता है वह,

पर खाता है केवल बेबस और निरीह को


सांप सब कुछ स्पष्ट देखता है,

पर चुप्पी साधे रहता है


रेंगनेवाला सांप से ज्यादा खतरनाक होता है

दौड़ने और उड़नेवाला सांप


काला नाग से भी ज्यादा खतरनाक होता है,

सफेद सांप

और चार टंगवा से ज्यादा खतरनाक होता है,

दू गोरवा सांप


कितना भी पिलाओ दूध, वह काटेगा ही

जहरीले होते हैं अधिकांश सांप


अपनी धुन पर दुनिया को नचाता है वह,

और स्वयं तमाशा देखता रहता है


कहाँ नहीं है सांप?

हर जगह फण काढ़ कर बैठा है


केवल कुर्सी की सुनता है सांप

और किसी की नहीं सुनता


जहां जितनी बड़ी कुर्सी, वहां उतना बड़ा

होता है सांप


सांप की पूजा होती है इस देश में,

बड़ी महिमा है सांप की!