भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिना कुदाल उठाए / रणजीत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:19, 30 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणजीत |संग्रह=प्रतिनिधि कविताएँ / रणजीत }} {{KKCatKavita…)
इस शैतानों की बस्ती में इन्सान का रहना मुश्किल है !
इक जुल्म तो सह भी लें लेकिन हर जुल्म को सहना मुश्किल है !
सब ओर फ़रेबों की उलझन, सब ओर भ्रमों के जाल बिछे
इस मज़हब के घनचक्कर में ईमान का रहना मुश्किल है !
होठों पे लगे हैं ताले औ’ आवाज़ बिचारी कैदी है
पूरा अफ़साना दूर यहाँ इक लफ़्ज भी कहना मुश्किल है !
विश्वास क़लम पर काफ़ी है, हथियार कारग़र है यह भी !
पर बिना कुदाल उठाए ये दीवारें ढहना मुश्किल है !