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आसमान / जितेन्द्र सोनी

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उन्हें अफ़सोस है
क्यों समझती रही सदियों से
आसमान को
आँगन भर जितना
जो बीतते वक्त के साथ फैल गया
सड़कों,बाजारों,विद्यालयों,कार्यालयों
संसद भवन,खेल मैदानों,पहाड़,समुद्र के ऊपर?
क्यों रोटी की गोलाई में सूरज चाँद देखती रही
और चूल्हे के धुंए से
बनाती रही बादल?
क्यों ये आसमान
उनके लिए असमान था?
वे अब भी हैरान हैंजैसे-जैसे बढ़ रहा है

उनके आँगन का आसमान