पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - २
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दिव्य दशमूर्ति
गीत
जय-जय जयति लोक-ललाम,
सकल मंगल-धाम।
भरत भू को देख अभिनव भाव से अभिभूत।
राममोहन रूप धर भ्रम-निधन-रत अविराम॥1॥
विविध नवल विचार-विचलित युवक-दल अवलोक।
रामकृष्ण स्वरूप में अवतरित बन विश्राम॥2॥
विपुल आकुल बाल-विधवा बहु विलाप विलोक।
विदित ईश्वरचन्द्र वपु धर स्ववश-कृत विधि वाम॥3॥
वेद-विहित प्रथित सनातन-पंथ मथित विचार।
दयानन्द शरीर धर शासन-निरत वसु याम॥4॥
पतन-प्राय समाज-शोधन की बताई नीति।
विहर रानाडे-हृदय में विदित कर परिणाम॥5॥
एक सत्ता मंत्र से दी धर्म्म को ध्रुव शक्ति।
रामतीर्थ स्वरूप धर उर-हार कर हरि-नाम॥6॥
दलित वंचित व्यथित महि में की अचिन्तित क्रान्ति।
बाल-गंगाधर तिलक बनकर अलौकिक काम॥7॥
राजनीति-विधन की विधि-हीनता की हीन।
गोखले गौरवित तन धर विरच सित मति श्याम॥8॥
तिमिर-पूरित भरत-भू में ज्योति भर दी भूरि।
मदनमोहन मूर्ति धर बनकर भुवन-अभिराम॥9॥
विविध बाधा मुक्ति-पथ की शमन की रह शान्त।
मंजु मोहन-चन्द में रम कर विहित संग्राम॥10॥
मातृ-महि-हित-रत क हर हृदय कुत्सित भाव।
द्रवित उर 'हरिऔध' गुंफित दिव्य जन गुणग्राम॥11॥
शार्दूल-विक्रीडित
नाना कार्य-विधायिनी निपुणता नीतिज्ञता विज्ञता।
न्यारी जाति-हितैषिता सबलता निर्भीकता दक्षता।
सच्ची सज्जनता स्वधर्म-मतिता स्वच्छन्दता सत्यता।
दिव्यों की दर्शमूर्ति देश-जन को देती रहे दिव्यता॥12॥