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अनुभूति / रमा द्विवेदी

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  • |रचनाकार= रमा द्विवेदी

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हर अनुभूति परिभाषा के पथ पर बढे-
यह आवश्यक नहीं,
शब्दों की भी होती है एक सीमा,
कभी-कभी साथ वे देते नहीं
इसलिए बार -बार मिलने व कहने पर
यही लगता है जो कहना था, कहां कहा?
'प्रेम' ऐसी ही इक 'अनुभूति' है,
वह मोहताज नहीं रिश्तों की।

अनाम प्रेम आगे ही आगे बढता है,
किन्तु रिश्ते हर पल मांगते हैं-,
अपना मूल्य?
मूल्य न मिलने पर
सिसकते,चटकते,टूटते,बिखरते हैं
फिर भी रिश्तों की जकडन को,
लोग प्रेम कहते हैं।

कैसी है विडम्बना जीवन की?
सच्चे प्रेम का मूल्य,
नहीं समझ पाता कोई? फिर भी वह करता है प्रेम जीवन भर,
सिर्फ इसलिए कि-
प्रेम उसका ईमान है,इन्सानियत है,
पूजा है॥