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कभी आर कभी पार लागा तीर-ए-नज़र / मजरूह सुल्तानपुरी
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कभी आर कभी पार लागा तीर\-ए\-नज़र
सैंया घायल किया रे तू ने मेरा जिगर
कभी आर कभी पार ...
पहले मिलन में ये तो दुनियाँ की रीत है
बात में गुस्सा लेकिन दिल ही दिल में प्रीत है
मन ही मन में लड्डू फूटे
नैनों से फुल्झड़ियाँ छूटे
होंठों पर तक़रार
कभी आर कभी पार ...
देखती रह गयी मैं तो जिया तेरा हो गया
मारा ऐसा तीर नज़र का
दर्द मिला ये जीवन भर का
लूटा चैन क़रार
कभी आर कभी पार ...