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आत्म-वर्जना / दुष्यंत कुमार

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अब हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगे।
तुम अपने घर के पीछे
जिन ऊँची ऊँची दीवारों के नीचे
मिलती थीं, उनके साए
अब तक मुझ पर मँडलाए,
अब कभी न मँडलाएँगें।

दुख ने झिझक खोल दी
वे बिनबोले अक्षर
जो मन की अभिलाषाओं को रूप न देकर
अधरों में ही घुट जाते थे
अब गूँजेंगे, कविता कहलाएँगें,
पर हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगें।