सूर्यमुखी / नरेन्द्र शर्मा
मैं सूर्यकिरण का प्यासा सूर्यमुखी!
मैं मनोनयन की भाषा सूर्यमुखी!
थर्राया था भू-गर्भ, चितेरे ने देखी धड़कन,
थी वान गाव की तूलि, कर सकी जो मेरा अंकन,
मैं अवनी की अभिलाषा सूर्यमुखी!
बैठी थी मेरे पास एक छोटी-सी छुईमुई;
छू दिया किसी ने उसे, त्वग्मना चट संकुचित हुई,
मैं खुल-खिलने की आशा सूर्यमुखी!
मैं यों बोला—“सुन, सखी, न संज्ञा त्वक् तक ही सीमित,
संकोच नहीं उत्क्रांति, क्रांतद्रष्टा जन ही जीवित!
मैं दिवास्वप्न-जिज्ञासा सूर्यमुखी!”
कह मुझे बहिर्मुख स्वप्न, स्वयं को अंतर्मुखी कहा,
रवि पर घिर आई घटा, घड़ी भर को मैं दुखी रहा,
अपनी-सी वह, अपना-सा सूर्यमुखी!
क्या मैं भी साधूँ मौन, आत्मकेंद्रित योगी बन कर?
भू-रज सूरज संपृक्त, न क्यों मैं खड़ा रहूँ तनकर!
अहमिदम स्वयं नन्हा-सा सूर्यमुखी!