मुद्रा-स्फ़ीति / गीत चतुर्वेदी
दौड़ते दौड़ते उन स्टेशनों तक पहुँचा जहाँ ट्रेनें इन्तज़ार नहीं करतीं
पहुँचा तो लोगों को इन्तज़ार करते देखा
देखता रहा ट्रेनें मुझे लोगों की तरह दिखीं लोग ट्रेन की तरह
पुल की रेलिंग से दो बच्चे झुके हैं चीखते हुए ‘बाय’
झुके हैं क्योंकि बहुत छोटे हैं
उचकते हुए झुका जा सकता है ऐसा बड़प्पन भरा ख़याल आया
क्या करूँ ये बड़प्पन जाता ही नहीं जैसे मुँहासों से बने छोटे सुराख़
मैले कपड़ों वाले एक आदमी को खोज रहा था
सोचिए, कपड़ों का मैला होना ख़त्म हो जाए
तो कितने प्रतीक यूँ ही निकल जाएँगे जीवन से
अच्छा, आप असहमत हैं? लोग अक्सर रहते हैं मुझसे
जब कह देता हूँ, इन दिनों
सहवासों को नहीं सहमति को सन्देह से देखो
संदिग्ध होने से डरता हूँ तो साहस खो देता हूँ
सिर झुका कहता हूँ अपने शब्द मानो किसी और के
मूर्ख होना मंज़ूर करता हूं
संदिग्ध अक्सर बच निकलते हैं
तभी शोर हुआ चोर चोर चोर मेरे सामने वाले ने कहा सारे लोग चोर
मैं बेहद शर्मिन्दा हुआ दो चोर एक-दूसरे के सामने बैठे हैं
मैंने कहा- नहीं जिसे 'चाय पियोगे- नहीं' वाले नहीं की तरह लिया गया जबकि
मेरा नहीं सिर्फ़ मेरा नहीं नहीं है; लो, आप फिर असहमत हैं!
चलिए, मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार किया
इस राजनीतिक हिम-युग में काइयाँपन की निशानी कहा उन्होंने इसे
मैं इसे मुद्रा-स्फीति जैसा इन दिनों चर्चित एक शब्द देता हूँ