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श्रमिक / रांगेय राघव

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वे लौट रहे
             काले बादल
अंधियाले-से भारिल बादल
यमुना की लहरों में कुल-कुल
सुनते-से लौट चले बादल

'हम शस्य उगाने आए थे
छाया करते नीले-नीले
झुक झूम-झूम हम चूम उठे
पृथ्वी के गालों को गीले

'हम दूर सिंधु से घट भर-भर
विहगों के पर दुलराते-से
मलयांचल थिरका गरज-गरज
हम आए थे मदमाते से

'लो लौट चले हम खिसल रहे
नभ में पर्वत-से मूक विजन
मानव था देख रहा हमको
अरमानों के ले मृदुल सुमन

जीवन-जगती रस-प्लावित कर
हम अपना कर अभिलाष काम
इस भेद-भरे जग पर रोकर
अब लौट चले लो स्वयं धाम

तन्द्रिल-से, स्वप्निल-से बादल
यौवन के स्पन्दन-से चंचल
लो, लौट चले मा~म्सल बादल
अँधियाली टीसों-से बादल